आज के लोगों को जाने क्या पता क्या चाहिए ?
इक नया हंगामा कोई रोज़ होना चाहिए ।
मन्दिरो-मस्जिद की हो,मण्डल की या शेयर की बात,
ध्यान लोगों का उन्हें कुछ उलझा-उलझा चाहिए ।
हँसते-गाते लोग फूटी आँख भी भाते नहीं,
नैनरंजन को उन्हें अब खूँख़राबा चाहिए ।
खेलते बच्चों के हाथों में दिये ख़ंजर थमा,
क्योंकि अब मन्ज़र उन्हें कुछ बदला-बदला चाहिए ।
लोग भड़कें या मरें या देश को लग जाए आग,
उन का तो अख़बार काले दाम बिकना चाहिए ।
एक मंशा, एक मक़्सद सिर्फ़ उन का रह गया,
भूल जाऐं हम कि हमको रोटी-कपड़ा चाहिए ।
यह ज़रूरी है तेरी संजीदा आँखों को ’यक़ीन’
बरग़लाने के लिए कुछ तो अजूबा चाहिए ।
पुरुषोत्तम ’यक़ीन’
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